मेवाङ पर औरंगजेब के हमले के समय की बात है, बादशाह ने सांप के बिल में हाथ तो डाल लिया था, मगर अब बात संभालने में नहीं आ रही थी। दोनों पक्ष पूरा जोर लगाकर रणनीतिक व्यवस्थाओं में लगे रहकर युद्ध किए जा रहे थे। कभी यह पक्ष जीत रहा था, तो कभी वह पक्ष।
मुगलों की सेना राजसमुद्र की पाल को तोङ नहीं देवें, इसलिए महाराणा ने अपने कई सरदारों को राजसमुद्र की पाल पर नियुक्त कर रखा था। ये सरदार व इनके मातहत सैनिक संख्या में जरूर कम थे, मगर इनको भय किसी से भी नहीं था। उधर महाराणा दुविधा में थे, क्योंकि कई मोर्चे खुल जाने के कारण सैन्य-बल की कमी पङने लग गई थी। गरीबदास कर्णसिंहोत का पुत्र श्यामसिंह न केवल उत्कृष्ट वीर था, बल्कि राजनीति व मुगल-आचार-व्यवहार के बारे में भी गहरी समझ रखता था। इस श्यामसिंह ने महाराणा को सलाह दी कि -
मुगल सैनिक केवल मन्दिरों का विध्वंस करते हैं, तालाबों का नहीं ! इसलिए राजसमुद्र पर तैनात सैन्य को वापिस बुला लिया जावें, ताकि उसे और कहीं वांछित स्थान पर भेजा जा सके। इस सलाह से महाराणा बहुत प्रसन्न हुए।
तत्काल ही एक हरकारा अपने घोङे पर चढकर राजसमुद्र की ओर उङ चला। उस हरकारे ने महाराणा का पत्र टुकङी के नायक को सौंप दिया। जिज्ञासा से सारे सैनिक अब एक स्थान पर एकत्र हो गए थे, ताकि उस समाचार को जाना जा सके, जो स्वयं महाराणा ने भेजा था। सबसे पहले मूल संदेश पढकर महाराणा का मंतव्य स्पष्ट किया गया, फिर एक-एक कर सभी के नाम पढे गए।
तत्काल ही आदेश की अनुपालना की जाने लगी।
साजो-सामान समेटा जाने लगा।
घोङों की जीनें कसी जाने लगी। मगर बणौल के ठाकुर सांवलदास का चाचा अणन्दसिंह राठौङ आराम से पाल पर बैठा रहा। साथियों ने पूछा -
अरे अंणदा ! थूं चालै नीं ?
तब उस राठौङ ने खिन्न भाव से कहा -
इण संदेसै में म्हांरौ नांव कोनी !
जद बिना बुलायां कींकर जाऊं ?
अंणदौ इत्तौ सस्तौ थोङौ ई है !
साथियों ने खूब समझाया, मगर वह नहीं माना। चूंकि मोर्चे पर जल्दी पहुंचना था, इसलिए वे सभी राजपूत उस जिद्दी राठौङ को वहीं छोङकर चल पङे। एक ने जाते-जाते मसखरी में कहा -
रै अंणदा ! बादस्या री सेनावां अठै आसी, जद किस्यै बिल में बङसी ?
तब उस आनन्दसिंह (अंणदसिंह) ने अपनी मूंछों पर हाथ फेरकर कहा -
इण बात रौ फैसलो तो वगत रै हाथा में है अर जित्तै तांई अंणदै रै हाथां में तरवार है, वगत ई सोच-समझ'र पग राखै है !
राजपूतों के अश्व पहाङी धरातल को कंपायमान कर तीव्र गति से चले....
राजपूतों के अश्व पहाङी धरातल को कंपायमान कर तीव्र गति से चले गए , मगर वह राठौङ राजसमुद्र की पाल पर ही स्थिर भाव से बैठा रहा । बाद में सचमुच ही शाही सेना वहां आ पहुंची । शाही अमीरों ने देखा कि एक अकेला कद्दावर राजपूत अपने घोड़े पर आरुढ होकर तालाब के पाल पर युद्ध मुद्रा में मानो इन्तजार ही किए जा रहा है । जैसे ही शाही सेना ने राजसमुद्र की पाल पर अपने इराकी घोडे चढाए , अंणदसिंह ने अपने अश्व को आगे बढाकर झौंक दिया । और आखिर में अपार पराक्रम के प्रदर्शन के बाद वीर गति हुआ।
ऐसे न जाने कितने जिद्दी राजपूत हुए , जिन्हें हम जानते तक नहीं है और जानना भी नहीं चाहते । क्योंकि हम यश उसी को मानने लग गए हैं , जो हमारे स्वयं की वंश - वेल को आच्छादित किए जाता हो ।
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